गांव की एक शाम (पलायन की व्यथा कथा)
शाम का समय था। अंधेरा घिर रहा था। एक घर में रेडियो पर अंग्रेजी गीत बज रहे थे। मै सोचने लगा इस गांव में ऐसा कौन है जो अंगे्रजी गीतों को सुन रहा है। यहां तो लोग हिन्दी भी ठीक से नही जानते...... उस घर में लाइट भी नही है......एक छोटी सी चिमनी जल रही है.... शायद कोई वहां खाना बना रहा है। खिडकी से धुंवा बाहर आ रहा है। आखिरकार मैंने अपने दोस्त से पूछ ही लिया- ‘‘प्रभात वहां कौन रहता है’’? उसने कहा- एक बुढ़िया रहती है
‘‘अकेली’’
मेरे सारे सवालों का जवाब मिल गया था।
मैं मौन हो गया..........
-अनिल डबराल
लेबल: लघुकथा



17 टिप्पणियाँ:
ye hui na baat
बढ़िया अनिल द।
गज़ब दादा
dhayawad bhai..
dhanyawad.... da
danyawad dada
Very good anil Bhai keep it up
Badhiya bhai ji
dhanyawad vikas bhai.... aap logo k sahyog se sab hoga....
bahut bahut dhanyawad bhai...
Badhiya
bahut bahut dhanyawad....
Ati sunder
bahut bahut aabhar
तीर सी चुभती कटूक्ति जो समझदारों के लिए एक इशारा है उस विरानेपन की हजारों ब्यथाओं की
बहुत बहुत धन्यवाद आभार
bahut badiya
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