बुधवार, 1 सितंबर 2021

जगुल्या


Photo: social media


जगुल्या

पहाड़ों की तलहटी में खोली गाँव था. सब प्रकार  का पहाड़ी अनाज यहाँ होता था. गाँव समृद्ध भी नहीं था परन्तु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का मुंह भी उसे नहीं ताकना पड़ता था. गाँव की दूर दूर तक फैली फसलों की रखवाली के लिए गाँव वालों ने जगुल्या रखा था. जंगल और खेतों की सीमा पर उसकी तैनाती थी वर्षों से... एक छोटा सा मचान था, जिसमें वह छहों ऋतुओं की पीड़ा भोगता था. प्रश्न हो सकता है कि वसंत में क्या कष्ट भोगता होगा जगुल्या? पर उसका निर्वासित सा जीवन वसंत में भी पीड़ा ही देता होगा. शरीर की न सही मन की ही...

सुबह जंगल जाते घस्येरों और लखडेरों से अपने मचान से ही हंसकर बात करता था, उनको आगाह करता था- “फलाने रौले मत जाना वहां बच्चों वाला रीछ है, बहुत खतरनाक. पलतीर बाघ घूर रहा था कल अकेले मत जाना वहां” आते-जाते घस्येरे गाँव से कुछ न कुछ लाते ही रहते थे. पर गाँव जाने को उसका मन हमेशा मचलता ही रहता था. गाँव के मर्द जब पल्ल छाने के लिए मालू के पत्ते और तछित घास लेने जंगल जाते तो जुगल्या की झोपडी उनकी बिसौण (विश्राम स्थली) होती थी. जगुल्या उनके साथ बीडी पीता और एक बीडी बाद के लिए अपने कान में या टोपी की तह में संभाल के रख लेता था. गाँव से कभी कुछ खाने को आ जाता तो खा लेता, नहीं तो कभी भूखे पेट तो कभी अपने आप ही आटे के ढुंगले (पत्थरों पर पकाई मोटी रोटी) बनाकर नमक के साथ खा लेता था. न माँ - बाप थे, न घर न घरवाली, मचान ही घर था. दिनभर बन्दर भगाता और रात भर जंगली सूअर, भालू, और सौल (साही)....

दो दिन से गाँव में ढोल बज रहे हैं. दो दिन से कोई जंगल में घास, लकड़ी लेने नहीं आया. पहली बार दो दिन दो युग के सामान लग रहे थे उसे..... पेट की आग उसे जला तो रही थी, पर उससे ज्यादा उसे अकेलापन खा रहा था. कई वर्ष अकेले रहने पर भी यकुलांस (अकेलापन) उस पर हावी नहीं हुआ. आज वह इस अकेलेपन से भागना चाह रहा था. आज वह लोगों से न जाने क्यों मिलना चाह रहा था। यही चाह वर्षों बाद उसे गाँव की तरफ खींचने लगी. उसे पता भी नही की वह कितने वर्षों बाद गांव जा रहा है।

वह जाने को उद्यत हुआ, मुआयना किया, जानवरों का कहीं पता नहीं था. परिस्थितियां अनुकूल पाकर वह फौजी बूट पहनकर, ढीली कमीज गमछे से कसकर, हाथ में लाठी लेकर गाँव की तरफ चल पड़ा. भूख बहुत तेज थी पर गाँव जाने के उत्साह ने उसे दबाकर रख दिया. सोचने लगा शायद गाँव में शादी है किसी की... आज तृप्त होकर और लोगों के साथ बैठकर खाना खायेगा. गाँव के लोग मिलेंगे वर्षों बाद.... सब उसकी कुशलक्षेम पूछेंगे..., कई बचपन के दोस्त मिलेंगे..... जो छुट्टियों में घर तो आते हैं, पर उसको मिलने जगुल्या की झोपडी में नहीं आते.... शिकायत करेगा वह उनसे.... मन में तरह-तरह के ख्याल आते और जगुल्या के चेहरे पर तरह-तरह के भाव बनते.... वह खयालों में खोया है.. हंस पड़ता है अचानक... और फिर इधर- उधर देखकर खुद को संयत कर लेता है.

परन्तु आशाएं दुःख ही देती हैं. गाँव में एक बड़े आदमी की बेटी की शादी थी। सारा गाँव वहीँ काम कर रहा था. यह भी सती सा दक्ष के यज्ञ में पहुँच गया. वहां सती की तो माँ थी पर इसका यहाँ कौन था? किसी ने हाल-चाल न लिया। बस एक ही प्रश्न सबने किया- यहाँ क्यूँ आया? जग्वाली कौन करेगा वहां? मन भर गया था गाँव के लोगों की बातें सुनकर... सोचा की खाना खाता हूँ और चला जाता हूँ जग्वाली पर.... पहली दो पंक्तियों में उसे खाने के लिए बैठने नहीं दिया... तीसरी पंक्ति में बैठा पत्तल लगी. सलाद, पापड़, पकोड़ी, सब्ज़ी के बाद दाल भात आया. दाल भात मिलाकर ग्रास बनाया ही था कि जसुली काकी दौड़ती चिल्लाती आई- "रांड़करा बन्दरून सब फसल चौपट कौर याली... नी खाण पैली तू..." जगुल्या झो......झो....झो.... करते हुए उठा और बन्दरों की तरफ भागा.. सारा गाँव तमाशा देखने छतों पर चढ़ा..... जगुल्या बंदरों पर चिल्ल्ला रहा था और सारा गाँव जगुल्या पर... बन्दर फ़ैल गये थे पूरी सारी पर... उनको दौडाते दौडाते बेदम होने लगा। शाम होते होते वह उन्हें नदी के पार खदेड़ देता है. वापस मुड़कर मरघट के पास पहुंचकर निढाल होकर गिर पड़ता है... माँ की स्मृति उसकी आँखों में तैर उठती है. पूरी शक्ति बटोरकर चिल्लाते हुए कहता है- "हे माँ! तू त मर ग्ये... फुके ग्ये..... मी ते भी इकमी अभी फूक दे....."

जगुल्या = (फसलों का रखवाला)

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