शुक्रवार, 4 जून 2021

नज़र और चश्में




चश्मा बेच रहा था वह।
अलग-अलग नज़र के चश्में थे उसके पास
नज़र अपनी भी खराब थी
पर खराबी भी समझ नही आ रही थी।

बड़े-बड़े लोगों को देखा है
बुद्धिजीवियों की नजरें भी देखी
एक विशेष चश्मा उनकी आंखों में था।
कइयों ने एक जैसा ही चश्मा पहना था
कुछ के चश्मे अलग अलग थे।

नज़र उनकी भी खराब रही होगी,
पर उनको उनका चश्मा मिल गया है,
उनके हिसाब का, उनकी पसंद का, 
वे उसमे जंचते भी बहुत है,
लोगों ने पसन्द किया भी बहुत है।

उन्होंने अपना चश्मा लोगों को भी दिया,
कई अब उनके चश्मे दे देखने लगे हैं,
जब किसी को उनका चश्मा नही भाया,
उन्होंने कहा- कुछ दिन पहने रखो!
फिर 'ठीक' दिखने लगेगा।
अब उसे वैसा ही दिखने लगा है,
अब उसे उनका 'ठीक' दिखने लगा है

चश्मे वाले ने कहा- कहाँ खो गए भई!
बताओ को से चश्मा दूं?
अधुनातन या पुरातन?
पौर्वात्य या पाश्चत्य?
समाजवादी, गांधीवादी, या मार्क्स का,
चश्मों की सूची पढ़ता गया वह,

मैंने कहा- तुमने चश्मा नही लगाया?
उसने कहा- मेरी नज़र ठीक है।
अब सोच रहा हूँ कि
ये 'ठीक' ठीक है? या वो 'ठीक' ठीक है
मेरी नज़र खराब है? या मेरी नज़र ठीक है?

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