सीख (SEEKH)
बागबां ने बरसों पहले
उम्मीद का एक पौधा रोपा था
सोचा था गुलों से महकेगा गुलशन
दरख़्त बनते ही पनाहगार बना उल्लू का
फिर वही कहानी पुरानी
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बिस्तर पर एक तरफ मैं लेटा था,
तो दूसरी तरफ चंद सिक्के मेरी पहुँच से दूर थे....
बिना कुछ किये उन्हें अपनी तरफ खींचना चाह रहा था
पर वे टस से मस न हुए
बाद में पीटने लगा था बिस्तर
फिर सरकने लगे थे मेरी तरफ...........
अब समझ में आया बिना कुछ किये कुछ नही होता
हाथ-पाँव तो मारने ही पड़ते हैं.
लेबल: मुक्तक



2 टिप्पणियाँ:
सुन्दर सृजन ।
बहुत बहुत आभार
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