निरभागीअषढु (NIRBHAGI ASHADHU)
यह पहाड़ का एक छोटा सा बाजार लग रहा है। सभी दुकानदार सुस्ता रहे हैं। कहीं पर रेडियो बज रहा है लेकिन दुकानदार की अंगडाई और जम्हाई के साथ वह भी बन्द हो रहा है। इस बाजार में एक या दो बार ही रौनक आती है जब विद्यालय में मध्यावकाश होता है या फिर छुट्टी होती है। और क्यों न हो, दूर-दूर के सारे गांवों की आवश्यक चीजों की आपूर्ति ज्यादातर इन्ही विद्यार्थियों के द्वारा होती है। और विनिमय में किसी की थैली से गुड़ तो किसी की थैली से एक मुट्ठी चीनी।
वैसे इस बाजार में गांव वालों का आना जाना कम ही होता है, कभी-कभार आवश्यक चीजों के लिए यहां तक पहुंचने की दुर्गम चढाई का सामना करना पड़ता है। हम गाड़ियों को देखने के शौक के चलते यहां आया करते थे। तभी मैंने गाड़ी की आवाज सुनी और सड़क पर पहुंच गया। यह गाड़ी सामान से भरी थी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा दो अन्य लोग भी थे। सड़क किनारे गाड़ी खड़ी हुई। वहां से एक आदमी खुद को झाड़ता हुआ सामने की दुकान में चला गया। फिर गाड़ी से एक ड्राइवर और दूसरा आदमी निकला। ड्राइवर निकलते ही व्यायाम करते हुए सामने की दुकान में चला गया दूसरा आदमी जिसका पेट उससे एक हाथ आगे था, उसके समृद्ध लाला होने की ओर इशारा कर रहा था। गाड़ी से निकलते ही कुछ खोज रहा था। अभीष्ट वस्तु मिलते ही वह चिल्लाया- अरे अषढ़ू!
उसके अभीष्ट पर मेरी दृष्टि ठिठक गई। क्योंकि वह दृश्य ही दृष्टि-स्तम्भित करने वाला था। मैंने देखा वहां पर एक आदमी बोरी ओढ़े बैठा था। बोरी के कारण वह स्पष्ट नही दिखाई दे रहा था। पर लाला ने जब दुबारा आवाज दी तो वह- हांजे के एक विशाल शब्द के साथ उठा और प्रत्यक्ष हो गया। वह शरीर से भयानक पर चेहरे से मासूम प्रतीत हो रहा था। उसके बाल सुई की तरह नुकीले और मोटे थे। आंखे लाल लाल और बड़ी बड़ी थी, लेकिन उनमें कहीं भी भयानकता नही थी वे स्वयं ही आतंकित सी लग रही थी। उसके दांत आडे-तिरछे थे। वह आर्मी की कमीज पहने था वर्षों से शायद इसीलिए उसका साथ दे रही थी। वरना आजकल के कपड़े तो एक महीने भी किसी के तन पर नही टिकते, उसकी कमीज भी डिजाइन और सिलाई से आर्मी की लग रही थी क्योंकि उसका रंग असीमित दागों की गहराई में लुप्त हो गया था। उसकी पैंट एक डोरी के सहारे उसकी कमर पर विराजमान है। उसकी लम्बाई घुटने से चार अंगुल नीचे है। जगह जगह लगे पैबन्द और घिसकर महीन हुए धागे। रंग का इसका भी पता नही।
तभी लाला ने कहा- ‘‘ये पूरी राशन उठाकर मेरी दुकान में रख दे’’ अषढु खुश हो गया कि वह काम करेगा तो लालाजी उस चीनी की चासनी में तले चिप्स खिलाएंगे और चाय भी पिलाएंगे। जल्दी जल्दी वह सामान ले जाने लगा।
अषढु का जीवन एकाकी है। जो स्वभावतः होना ही था। कौन उसे अपना साजन बनाता? उसे सजनी मिलती भी तो अपूर्ण ही मिलती। दो दुःखों से दुखी होने से अच्छा है कि एक ही दुख रहे कि उसका कोई नही है।
अब उसने सारा सामान दुकान तक पहुंचा दिया है, और लाला के इधर उधर मंडराने लगा है कि लाला अब उसे कुछ खाने को देगा। पर डर के कारण बोल भी नही पा रहा है। लाला भी उसके मंडराने को समझता है अतः लाला ने एक दुकानदार को आवाज दी- ‘‘अरे दिल्लू ये निर्भे तै चाय पिलै दे’’ (इस भाग्यहीन को चाय पिला दे)
चाय का बर्तन जा धोने के लिए रख दिया था उसी में पानी डाला और चाय बना दी। इधर अषढू तब तक चिप्स टटोलने लगा कि कौन सा चिप्स बड़ा है। चायवाले ने उसे ऐसा करते देख फटकारा- ‘‘निर्भै अषढु भाग जा यख बिटेक’’
अषढु रूआंसा हो गया और बोझिल कदमों से वहां से चला गया। अब तक शाम भी हो गई है। अषढु अपने पहले स्थान पर बोरी ओढे धूप सेक रहा है। थोड़ी देर में धूप वहां से चली जाती है। और वो भी वहां से आगे बढ़ जाता है कि कहीं किसी टीले पर थोड़ी धूप मिले.................
-अनिल डबराल
Sara Ghatanakram or charitra charitarth ho Gaye... Adbhut 🙏
जवाब देंहटाएंBahut bahut dhanyawad ... Aabhar
हटाएंअकल्पनीय महोदय
जवाब देंहटाएं।।
Aabhar mahoday..
हटाएंअषढु...बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी
जवाब देंहटाएंगढवाली शब्द कहानी को और भी रोचक बना रहे हैंं...पूरा परिवेश एक शब्दचित्र सा उकेर रहा है।
बहुत बहुत धन्यवाद देवरानी दी,
जवाब देंहटाएं